अबे इतनी सर्दी में लस्सी पिलाकर मारने का इरादा है क्या? मैने ग़ाज़ियाबाद के पुराने बस स्टैण्ड से गुजरते हुए चिल्ला कर कहा। दुकान पर बैठे दुकानदार ने हल्की की मुस्कान फेंकी और मुझे इशारा करके अपने पास बुलाया। सड़क पार करने के दौरान देखा कि दो चार लोग मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देख रहे थे। उनकी निगाहों के निशाने को देखते हुए मैने सोचा बेटा पट-पट बोलने की ये आदत किसी दिन तुम्हे मारवागी ये तो निश्चित है। और लगता है तुम्हारा इंतज़ार ख़त्म हो गया। सामने दुकानदार का चेहरा-मोहरा देखकर मै इसके प्रति और भी आश्वस्त हो गया था। अब पीटने की बारी थी। मै लगने वाली मार को माप-तोल करने लगा। दुकान मालिक की ऊंचाई मेरी से इंच भर ही छोटी होगी लेकिन अधेड़ उम्र का मजबूत डील-डौल मेरे अन्दर तक कंप-कपी पैदा कर रहा था। सरकता हुआ सा मै पास जा पहुंचा। अब दुकान मालिक की बारी थी। तो उन्होने मुस्कुरा कर कहा- एक बार इस ठण्ड में हमारे दुकान की लस्सी तो पी के देखो फिर बात करना।
मै हाव-भाव से भांप गया कि अब पीटने का ख़तरा यहां नही है। मैने भगवान का धन्यवाद दिया कि आपने एक बार फिर मुझे बचा लिया। तब फिर क्या था मैने भी चौड़ाई के साथ कहा -इतनी ठण्ड में ये लस्सी बनाकर क्यों लोगों को डरा रहे हो, और लस्सी तो लस्सी ये जो आपने बर्फ की सिलि्लयां रखी हुई हैं ये तो लोगों की रूह कापां दे रही हैं
इस पर संजीव (दुकान मालिक) ने कहा कि ये तो मलाई को बचाने के लिए रखी गयी हैं वैसे त्हारे मन में लस्सी को लेकर ज़्यादा ही डर है। इतने कहने के बाद तेज़ आवाज़ में कांउटर पर खड़े आदमी को कहा दे रे आधा गिलास लस्सी यहां पे। मैने मन में सोचा यार ये तो मार से भी ज़्यादा ख़तरनाक हो गया आज तो फंस गऐ। और इधर संजीव का बोलना जारी रहा। उन्होने आगे बताया अगर यू लस्सी गर्मी में मिल जाऐ पीने कू, तो यहां सु वहां तलक लेन लग जाऐगी। बुरा सा चेहरा बनाऐ मैने सोचा हां तुझे तो धन्धा करना है लोगों की परवाह क्यों करेगा। फिर मैने कहा- रहने दो मै लस्सी नही पीऊँगा,मेरी तबीयत ख़राब हो जाऐगी.मियादी बुखार आ जाऐगा या फिर गला तो ज़रूर ही ख़राब हो जाऐगा।
लेकिन मेरी परेशानी वो कहां समझने वाला था.उसने कहा- अजी कुछ हो जाऐ तो हम यही हैगें. आज सु ना हम तो सन् ७८ से दुकान किऐ बैठे हैं। मैने कहा- हां बाबा कालेज में था तो पैसे बचा कर मै भी गर्मी में आपकी लस्सी महीने में एक दो बार तो पी ही लेता था और दोस्तों से लालमन की लस्सी के चर्चे करता था। लेकिन आज तो बख्श दो। इतने में लस्सी सामने थी डरते-डरते हल्का घूंट भरा। दुकानदार ने पूछा- क्यों मज़ा आया न। अब मैने भी मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ जवाब दिया- हां वाक़ई लाजवाब है। तीन-चार साल बाद लालमन की लस्सी चखी दी आनन्द तो आ ही रहा था। पुरानी बाते भी आंखो के सामने आ रही थी। गर्मी के दिनों मै जहां भी गया लस्सी देखकर लालमन की लस्सी याद आ ही जाती थी। पीता था लेकिन स्वाद का अता-पता नही। मज़ा आ गया चटोरी जीभ ने ठंड में चाय की चुस्कियां ली हैं पकौड़ीयां भी छक कर खाई हैं लेकिन लस्सी का मज़ा तो पहली बार लिया है। ये अंदाज़ भी मज़ेदार रहा।
Sunday, January 3, 2010
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3 comments:
ये भी खूब रही!
बी एस पाबला
बहुत बढ़िया अनुभव पर अब ऐसे और आगे भी ट्राइ मत कीजिएगा ज़रूरी नही सब लालमन के जैसे ही हों!!
बहुत बढ़िया!!
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
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