Monday, September 8, 2008

मै खुद मर गया हूं या मुझे मारा गया है


सड़क उस पार खड़े सिपाही पर नज़र गयी और मै आँटो से उतर कर उसकी ओर चल दिया। दिमाग़ में खुनन्स भरी हुयी थी परेशान था ज़्यादा सोचा भी नही बस सफ़ेद वर्दी धारी से जाकर कहा कि वो आ़‌टो वाला चलने से मना कर रहा है। चश्में के पीछे से झांकती अनुभवी आँखों ने मेरा तमतमाया हुआ चेहरा पढ़ा और कहा कि तुम आँटो में ही बैठो मै आता हूँ। सुबह आँफिस जाने के लिए रोज़ इन आंटोरिक्शा वालों से दो चार होना पड़ता है। अव्वल तो कोई आसानी से चलने के लिए के तैयार नही होता। कोई ५०रू मांगता है तो किसी के कुछ और दूसरे बहाने होते है। किसी का मी‍टर ख़राब होता है। अब आदत सी पड़ गयी है रोज़ तीन-चार आंटो वालो को रोकना पड़ता है और उन्हे चलने के लिए तैयार करना पड़ता है इसी में १० से १५ मि. लगते हैं। अन्दर ही अन्दर यही सब मेरे दिमाग में हलचल मचाऐ हुये था। और संतोष भी था कि चलो आज तो मै एक आ़टो वाले को सुधार ही दूँगा। कम से कम ये आज किसी को नही ठगेगा। मै अभी आकर बैठा ही था कि ट्रेफिक पुलिस का ए.एस.आई भी आ गया और मेरे से पूछा कि क्या हुया था। बीच में आटो वाले ने बोलना चाहा लेकिन सिपाही ने कहा पहले तुम चुप रहो पहले मै इनकी सुनूगा फिर तुम्हारी....देखिए सर पहले ये चलने के लिए तैयार था इसने मुझझे ४० रू. मांगे। मैने कहा कि २८रू. तुम्हारे मी. से बनते हैं और हम ३० रू. देते है..अब चलो मै इससे ज़्यादा पैसे नही दूँगा। फिर ये कहने मै नही जाऊंगा मै कहा क्यों, तो इसका कोई जवाब नही था इसके पास। फिर मै कहा देखो जाना तो तुमको ही पड़ेगा एक बार तुम हाँ कह चुके हो...तो कहने लगा कि मै पहले लाडो सराय में गैस भरवाऊगा फिर चलूंगा ३० रू. में। चलो चलना है तो। मै बिफर उ‌ठा मैने कहा कि तुम्हे अभी तक कोई भी परेशानी नही थी तुम चलने के लिए भी तैयार थे और अब ये बहाने।.....मेरा गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। औऱ मैने कहा चलना तो अब तुम्हे ही पड़ेगा चाहे जो हो। इतने में मेरे बड़े भाईसाहब बोल उ‌ठे। उन्होने कहा कि चलो गैस मी. दिखाओ... मजबूरी मे उसे मी. दिखाना पड़ा और मी. देखकर हम हैरान थे मी. की सुई पर्याप्त मात्रा में गैस दर्शा रही थी। तभी मेरी नज़र सड़क उस पार खड़े आप पर पड़ी और मैने आपको बुला लिया। ये सारी बातें मैने एक सांस में सिपाही को सुना डाली। मेरी आवाज़ ऊंची थी या तो शोर-शराबे की वज़ह से मुझे चीखना पड़ रहा था या फिर ये मेरा ग़ुस्सा था जो मेरी आवाज़ में दिख रहा था।
फिर सिपाही ने ड्राइवर से लाइसेंस मांगा और पूछा सस्ते में निब‍टना है कि मँहगें में। उसने धीरे से कहा सस्ते मे। तो वर्दीधारी महाशय ने कहा लाओं सौ रूपए और सुनो कटवारिया स्डैन्ड पर जब तक मेरी ड्यूटी है तब तक तुम किसी से ऐसा बर्ताव नही करोगें। ये मेरी सख़्त हिदायत है। ये अपना चालान पकड़ो और इन्हे छोड़ के आओ...आटो वाला चलने को तैयार हुया तो उन्होने कहा कि एक बात और रास्ते में इन्हे परेशान मत करना। वरना और भी मँहगा पड़ जाऐगा चलो अब जाओ।
आटो में एकदम से ख़ामोशी थी...रोज़ अमूमन जो छोटी-मोटी गप्पबाजी मेरे और भाईसाहब के बीच हुया करती थी आज वो भी नदारद थी। सामने लगे शीशे मे ड्राइवर की सुर्ख आँखे दिखाई दे रही थी। और उसका धूमिल चेहरा भी दूसरी ओर लगे शीशे में। मै बेचैन सा घुटन महसूस कर रहा था। बार-बार एक ही प्रश्न मेरे जेहन में चल रहा था क्या मेरा सलूक सही था या ग़लत। तर्कों के जरिए मै अपने आप को सही ठहराने पर अड़ा हुया था लेकिन मानवीय पक्ष बार-बार मुझे धिक्कार रहा था। लग रहा था कि मैने कितना बड़ा गुनाह कर दिया है एक रिक्शा वाला जो दिन भर में २०० से लेकर ३००रू. कमाता है उसके १०० रू. मैने बस अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए ज़ाया करवा दिए। उसके परिवार वालो के लिए यह आर्थिक नुकसान बहुत बड़ा नुकसान होगा। क्या आज वह इस १०० रू. को कमा सकेगा। मन में एक प्रार्थना कर रहा था कि हे भगवान आज इसका दिन अच्छा गुज़रे और इसकी कमाई अच्छी हो।
उधेड़बुन जारी थी कभी मानवता मुझे नीचा दिखा रही थी तो कभी नियम क़ानून और मेरे अधिकारों से बना तर्क का घोसला इन विचारो पर भारी पड़ जाता था। मै फिर से इन्सानियत को दरकिनार कर अपने पर गर्व करता था कि आज मैने कम से कम एक को तो क़ानून का पा‌ठ पढ़ा दिया और मुझे ना जाने ये भी विश्वास था कि आज के बाद ये सुधर जाऐगा.....इसी बीच मेरा दफ़्तर आ गया और मै चुपचाप बोझिल मन से उतरा और उसे पैसे देने लगा लेकिन आटो वाले के रूधे गले से हल्की सी आवाज़ आयी..मै नही लूंगा पैसे आप जाइए। मै अवाक् रह गया मुझे ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नही थी।....१० मिनट की मान-मनौवल के बाद उसने पैसे तो रख लिए लेकिन मेरे दिल का बोझ जस का तस बना हुया है।

9 comments:

संदीप द्विवेदी said...

ऑटो वाले ही क्यों.....ऊपर से लेकर नीचे तक सब बईमान हैं. कमज़ोर पर तो हर कोई ज़ोर आज़माइश करता है....ज़रूरत है की ताकतवर को रस्ते पर लाया जाए....लेकिन रास्ता ऐसा हो कि उसके साथ कई लोगो को सबक मिले.

Kavita Vachaknavee said...

स्वागत है हिन्दी ब्लॉग जगत् में,
खूब लिखें, अच्छा लिखें.

Satyendra Prasad Srivastava said...

आपकी पहल में गलती नहीं थी। पहले वो ऑटो वाला गलत था, बाद में पुलिस वाले ने वही किया, जो उनका नॉर्मल काम है। क्या कर सकते हैं आप और हम। कम्प्लेन न करें तो झुंझालहट, कंप्लेन कर दिया और उसे सज़ा मिल गई तो मन में दुख और अपराध बोध। सच पूछिए तो दिल्ली शरीफ लोगों के रहने की जगह नहीं है

شہروز said...

likho yaar khoob likho ab ham log aur kar bhi kya sakte hain.

श्यामल सुमन said...

अरविन्द जी,
सम्वेदना और न्याय के अन्तर्द्वन्द से जूझता आपका यह आलेख आपकी जीवंतता का पर्याय है। कहीं से चुनकर लायी दो पंक्तियाँ आपके लिए -

यह और बात है कि आँधी हमारे बस में नहीं।
मगर चराग जलाना तो अख्तियार में है।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Anil Dubey said...

भाई मेरे मैं तुम्हारे मन की उलझन को समझ सकता हूं.लेकिन तुम ये सोचो कि तुम्हारे पास विकल्प क्या थे...पहला, तुम उस आटो वाले को छोड देते और दूसरा आटो तलाशते. तुम्हारा गुस्सा बढता. दूसरे आटो के पास जाते वह भी कुछ ऐसा ही व्यव्हार करता.तुम उसे भी छोड देते. तुम्हारा गुस्सा और बढ्ता.तुम तीसरे के पास जाते.लेकिन इस बार तुम उसे नहीं छोडते.आटो पर बैठते और जितना भी मांगता उसे हां कर ले जाते फिर जितना किराया मीटर से बनता है उतना देते और चल देते.लेकिन तब आटो वाले की क्या प्रतिक्रिया होती ये तुम नहीं जानते.हो सकता है वो अड जाता फिर लड जाता.और ये भी तो सोचो कि तुम तो जवान हो लडके हो लेकिन क्या ऐसा ही कुछ लडकियां या बुढे कर सकते.शायद नहीं.और वैसे भी लडने की बात कुछ जम नहीं रही है.अच्छा है कानून को अपने हाथ मे ना लेकर जहां कानून के रखवाले मौज़ूद हों उन्हें इत्तला करो और सुबह सुबह अपना दिमाग ना खराब करो और दिन भर ठीक से काम करो.ज्यादा सोचो मत.दिल्ली जैसे महानगर में संवेदना का कोई कद्र नहीं है.संवेदना को सही जगह और सही समय के लिये बचा कर रखो अन्यथा संवेदनहीन होते देर ना लगेगी.

avinash said...
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Unknown said...

मित्रवर तुम्हारे द्वारा किया गया कार्य एक न्यायोचित और यथोचित कदम था...पश्चाताप की अग्नि में जलने की कोई आवश्यकता नहीं है...तुम्हारे द्वारा किया गया कार्य मेरे हिसाब से एकदम सही है...तुम्हारे इस कदम से कम से कम वो ऑटो वाला कभी गलती करने का दुस्साहस तो नहीं करेगा...और अगर वो अपने मित्रगणों के बीच इस वृतांत का जिक्र करेगा तो उसके मित्रगण भी इस गलती की पुनरावृति करने का दुस्साहस तक नहीं करेंगे....और अंत में एक बात और कहना चाहता हूं....

गलती तो आखिर गलती होती है....
चाहे वो छोटी ही क्यों न हो....
इसलिए व्यर्थ में अपने आप को मत कोसो...
तुमने तो एक प्रशंसनीय कार्य किया है...
इस कार्य से लोगों की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी...क्योंकि आज के इस मशीनी युग में लोग अपने अधिकारो के प्रति उदासीन हो चुके हैं...इसलिए तुम्हारे द्वारा किया गया कार्य लोगों के लिए संजीवनी का कार्य करेगा....

चंद्रशेखर सिंह

प्रदीप मानोरिया said...

बहुत सटीक लिखा है आपने हिन्दी ब्लॉग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है निरंतरता की चाहत है समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें